The NCERT Sanskrit Textbook for Class 10 Solution अध्याय-10 अन्योक्तय:

दशमः पाठः

अन्योक्तयः 

प्रस्तुतोऽयं पाठः अन्योक्तिविषये वर्तते । अन्योक्तिः नाम अप्रत्यक्षरूपेण व्याजेन वा कस्यापि दोषस्य निन्दाया: कथनम्, गुणस्य प्रशंसा वा । सङ्केतमाध्यमेन व्यज्यमानाः प्रशंसादयः झटिति चिरञ्च बुद्धौ अवतिष्ठन्ति । अत्रापि सप्तानाम अन्योक्तीनां सङ्ग्रहो वर्तते । याभि: राजहंस - कोकिल-मेघ- मालाकार-तडाग-सरोवर - चातकादीनां माध्यमेन सत्कर्म प्रति गमनाय प्रेरणा प्राप्यते ।

सरलार्थ - यह प्रस्तुत पाठ अन्योक्ति के विषय में है। अन्योक्ति नाम अप्रत्यक्ष रूप से किसी बहाने अथवा किसी दोष की निन्दा करना अथवा गुण की प्रशंसा करना है। संकेत के माध्यम से किसी की निन्दा अथवा प्रशंसा जल्दी और देर तक बुद्धि में बैठ जाती है, अर्थात् पाठकों को जल्दी समझ आ जाती है। इसमें सात अन्योक्तियों का संग्रह है। जिनमें राजहंस, कोयल, बादल, मालाकार, तालाब और चातक के आदि माध्यम से अच्छे कर्मों के प्रति जाने के लिए प्रेरित करते हैं।

एकेन राजहंसेन या शोभा सरसो भवेत् ।
न सा बकसहस्त्रेण परितस्तीरवासिना ॥1॥

अन्वय - एकेन राजहंसेन सरसः या शोभा भवेत्, सा (शोभा) परितः तीरवासिना बकसहस्रेण न (भवति) ।

सरलार्थ - एक राजहंस से सरोवर की जो शोभा होती है, वह शोभा चारों ओर किनारों पर रहने वाले हजारों बगुलों से नहीं होती है।

भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता-
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि ।
रे राजहंस ! वद तस्य सरोवरस्य,
कृत्येन केन भवितासि कृतोपकारः ॥2॥

अन्वय - रे राजहंस ! यत्र भवता मृणालपटली भुक्ता, अम्बूनि निपीतानि नलिनानि निषेवितानि । वद, तस्य सरोवरस्य कृतोपकार: केन कृत्येन भविता असि । 

सरलार्थ - हे राजहंस! जहाँ आपने कमलनाल के समूह को खाया है, जल को भली-भाँति पीया है, कमलों का सेवन किया है। बोलो, उस सरोवर का किया गया उपकार किस कार्य से ( प्रकार से) चुकाओगे?

तोयैरल्पैरपि करुणया भीमभानौ निदाघे,
मालाकार! व्यरचि भवता या तरोरस्य पुष्टिः ।
 सा किं शक्या जनयितुमिह प्रावृषेण्येन वारां, 
धारासारानपि विकिरता विश्वतो वारिदेन ॥3॥

अन्वय - हे मालाकार ! भीमभानौ निदाघे अल्पैः तोयैः अपि भवता करुणया अस्य तरोः या पुष्टि: व्यरचि । वारां प्रावृषेण्येन विश्वतः धारासारान् अपि विकिरता वारिदेन इह जनयितुम् सा (पुष्टि ) किं शक्या ।

सरलार्थ - हे माली! सूर्य के तेज चमकने ( तपने) पर गर्मी के समय में थोड़े जल से भी आपने दया के इस पेड़ की जो पुष्टि की है। जलों को वर्षा काल में चारों ओर से धाराओं के प्रवाहों को भी बरसाते हुए बादल से इस संसार में उस पेड़ की पुष्टि क्या की जा सकती है ?

आपेदिरेऽम्बरपथं परितः पतङ्गाः,
भृङ्गा रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते ।
सङ्कोचमञ्चति सरस्त्वयि दीनदीनो,
मीनो नु हन्त कतमां गतिमभ्युपैतु ॥ 4 ॥

अन्वय - पतंगा परितः अम्बरपथम् आपेदिरे, भृंगा रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते । सरः त्वयि संकोचम् अंचति, हन्त दीनदीन: मीनः नु कतमां गतिम् अभ्युपैतु ।

सरलार्थ - पक्षियों ने चारों ओर से आकाशमार्ग को प्राप्त कर लिया है। भौंरें ने आम की मंजरियों को आश्रय बना लिया है। सरोवर तुम्हारे संकुचित होने पर हाय निराश्रित मछली निश्चय से किस गति को प्राप्त करेगी।

एक एव खगो मानी वने वसति चातकः । 
पिपासितो वा म्रियते याचते वा पुरन्दरम् ॥5॥

अन्वय - एक एव मानी खगः चातकः वने वसति वा पिपासितः म्रियते पुरन्दरं याचते वा ।

सरलार्थ - एक ही स्वाभिमानी पक्षी चातक (चकोर) वन में रहता है या प्यासा मर जाता है अथवा इन्द्र से (वर्षा की) कामना करता है |

आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्णतप्त-
मुद्दामदावविधुराणि च काननानि ।
नानानदीनदशतानि च पूरयित्वा,
रिक्तोऽसि यज्जलद ! सैव तवोत्तमा श्रीः ||6||

अन्वय - हे जलद ! तपनोष्णतप्तं पर्वतकुलम् आश्वास्य उद्दामदावविधुराणि काननानि च (आश्वास्य) नानानदीनदशतानि पूरयित्वा च यत् रिक्तः असि तव सा एव उत्तमा श्रीः ।

सरलार्थ - हे बादल! सूर्य की गर्मी से तपे हुए पर्वतों के समूह को तृप्त करके ऊँचे वृक्षों से रहित वनों को तृप्त करके और अनेक नदियों और सैकड़ों नालों को जल से पूर्ण भर करके भी यदि तुम खाली हो तो वही तुम्हारी उत्तम शोभा है।

रे चातक ! सावधानमनसा मित्र ! क्षणं श्रूयता- 
मम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वेऽपि नैतादृशाः । 
केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा,
यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ॥ 7 ॥

अन्वय - रे रे चातक! सावधानमनसा क्षणं श्रूयतां, गगने हि बहवः अम्भोदाः सन्ति, (तु) सर्वे अपि एतादृशाः न (सन्ति), केचित् धरिणीं वृष्टिभि: आर्द्रयन्ति केचिद् वृथा गर्जन्ति, (त्वम्) यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतः दीनं वचः मा ब्रूहि ।

सरलार्थ - हे चातक पक्षी ! सावधान मन से सुनो। आकाश में निश्चय ही बहुत सारे बादल हैं, परन्तु सभी एक जैसे नहीं हैं। कुछ धरती को बारिश से भिगो देते हैं, कुछ बेकार में ही गरजते हैं। तुम जिस जिस को देखते हो उस उस के आगे अपने दीन (दुःखी) वचन मत कहो ।


अभ्यासः

1. एकपदेन उत्तरं लिखत-
(क) कस्य शोभा एकेन राजहंसेन भवति ?   सरसः
(ख) सरसः तीरे के वसन्ति?    बकसहस्रेण
(ग) कः पिपासितः म्रियते ?     चातकः
(घ) के रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते ?  भृंगाः
ङ) अम्भोदाः कुत्र सन्ति ?   गगने
2. अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-
(क) सरसः शोभा केन भवति ?
उ. सरसः शोभाः राजहंसेन भवति ।
(ख) चातकः किमर्थं मानी कथ्यते ?
उ. चातकः पिपासितः म्रियते पुरन्दरं याचते वा यतः मानी कथ्यते ।
(ग) मीनः कदा दीनां गतिं प्राप्नोति ?
उ. यदा सरोवरस्य संकोचम् अंचति तदा मीनः दीनां गतिं प्राप्नोति ।
(घ) कानि पूरयित्वा जलदः रिक्तः भवति ?
उ. नानानदीनदशतानि पूरयित्वा जलदः रिक्तः भवति ।
(ङ) वृष्टिभिः वसुधां के आर्द्रयन्ति ?
उ. वृष्टिभिः वसुधां अम्मोदा: आर्द्रयन्ति ।
3. अधोलिखितवाक्येषु रेखाङ्कितपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-
(क) मालाकारः तोयैः तरोः पुष्टिं करोति ।
उ. मालाकारः कै. तरोः पुष्टिं करोति ?
(ख) भृङ्गाः रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते । 
उ. भृंगाः कानि समाश्रयन्ते ?
(ग) पतङ्काः अम्बरपथम् आपेदिरे। 
उ. के अम्बरपथम् आपेदिरे ?
(घ) जलदः नानानदीनदशतानि पूरयित्वा रिक्तोऽस्ति । 
उ. कः नानानदीनदशतानि पूरयित्वा रिक्तोऽस्ति ?
(ङ) चातकः वने वसति ।
उ. चातकः कुत्र वसति?
4. अधोलिखितयोः श्लोकयोः भावार्थं स्वीकृतभाषया लिखत-
(अ) तोयैरल्पैरपि................................... वरिदेन |
भावार्थ — हे माली ! सूर्य के तेज चमकने ( तपने) पर गर्मी के समय में थोड़े जल से भी आपने दया के इस पेड़ की जो पुष्टि की है। जलों को वर्षा काल के चारों ओर से धाराओं के प्रवाहों को भी बरसाते हुए बादल से इस संसार में उस पेड़ की पुष्टि क्या की जा सकती है? अर्थात् उत्तम जीवन जीने के लिए सुखयुक्त वस्तुओं की अधिकता भी मानव जीवन को पूर्णतया सक्षम नहीं बनाती है। उसके लिए सुख अथा दुःख भरे क्षणों की आवश्यकता होती है, क्योंकि क्योंकि सुख और दुःख दोनों मानव जीवन के ही कंधे हैं और दोनों ही आवश्यक हैं।

(आ) रे रे चातक...........................दीनं वचः ।
सरलार्थ - हे चातक पक्षी! सावधान मन से सुनो। आकाश में निश्चय ही बहुत सारे बादल हैं, परन्तु सभी एक जैसे नहीं हैं। कुछ धरती को बारिश से भिगो देते हैं, कुछ बेकार में ही गरजते हैं। तुम जिस-जिस को देखते हो उस-उस के आगे अपने दीन (दुःखी) वचन मत कहो। अर्थात् सभी के आगे अपने दुःख को प्रकट करके हाथ फैलाना उचित नहीं होता है। इससे अपना अपमान होता है और सभी उदार हृदय वाले नहीं होते हैं। अतः सभी के आगे रोना और माँगना उचित नहीं है।
5. अधोलिखितयोः श्लोकयोः अन्वयं लिखत-
(अ) आपेदिरे...............................कतमां गतिमभ्युपैति।
अन्वय - पतंगा परितः अम्बरपथम् आपेदिरे, भृंगा रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते । सरः
त्वयि संकोचम् अंचति, हन्त दीनदीनः मीनः नु कतमां गतिम् अभ्युपैतु ।

(आ) आश्वास्य.......................सैव तवोत्तमा श्रीः ॥
अन्वय - हे जलद ! तपनोष्णतप्तं पर्वतकुलम् आश्वास्य उद्दामदावविधुराणि
काननानि च (आश्वास्य) नानानदीनदशतानि पूरयित्वा च यत् रिक्तः असि तव सा एव उत्तमा श्रीः ।

6. उदाहरणमनुसृत्य सन्धिं / सन्धिविच्छेदं वा कुरुत-
(i) यथा - अन्य + उक्तयः =अन्योक्तयः
(क) निपीतानि  + अम्बूनि = निपोतान्यम्युनि
(ख) कृत + उपकारः =  कृतोपकारः
(ग) तपन + उष्णतप्तम्  = तपनोष्णतप्तम्  
(घ) तव + उत्तमा = तवोत्तमा
(ङ) न + एदादृशा = नैतादृशाः
(ii) यथा - पिपासितः + अपि = पिपासितोऽपि
(क) क + अपि = कोऽपि
(ख) रिक्तः + असि = रिक्तोऽसि
(ग) मीन: + अयम् = मीनोऽयम्
(घ) सर्वे + अपि = सर्वेऽपि
(iii) यथा- सरसः + भवेत् = सरसो भवेत्
(क) खगः + मानी = खगो मानी
(ख) मीनः + नु = मीनो नु
(ग) पिपासितः + वा = पिपासितो वा
(घ) पुरतः + मा = पुरतो मा

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