The NCERT Sanskrit Textbook for Class 10 Solution अध्याय-6 सौहाद्र प्रकृतेः शोभा

षष्ठः पाठः

सौहार्द प्रकृतेः शोभा 

अयं पाठः परस्परं स्नेहसौहार्दपूर्णः व्यवहारः स्यादिति बोधयति । सम्प्रति वयं पश्यामः यत् समाजे जनाः आत्माभिमानिनः सञ्जाताः, ते परस्परं तिरस्कुर्वन्ति । स्वार्थपूरणे संलग्नाः ते परेषां कल्याणविषये नैव किमपि चिन्तयन्ति । तेषां जीवनोद्देश्यम् अधुना इदं सञ्जातम् - 

                           “नीचैरनीचैरतिनीचनीचैः सर्वैः उपायैः फलमेव साध्यम् "
अतः समाजे पारस्परिकस्नेहसंवर्धनाय अस्मिन् पाठे पशुपक्षिणां माध्यमेन समाजे व्यवहृतम् आत्माभिमानं दर्शयन्, प्रकृतिमातुः माध्यमेन अन्ते निष्कर्ष: स्थापितः यत् कालानुगुणं सर्वेषां महत्त्वं भवति सर्वे अन्योन्याश्रिताः सन्ति । अतः अस्माभिः स्वकल्याणाय परस्परं स्नेहेन मैत्रीपूर्णव्यवहारेणच भाव्यम् ।

सरलार्थ - यह पाठ आपस में स्नेहपूर्ण व्यवहार का बोध कराता है। इस समय हम देखते हैं कि समाज में लोग स्वाभिमानी हो गए हैं, वे एक-दूसरे का तिरस्कार करते हैं। स्वार्थ को पूरा करने में लग हुए वे दूसरे के कल्याण के विषय में कुछ भी नहीं सोचते हैं। उनके जीवन का उद्देश्य अब ऐसा हो गया है -

"नीच, अनीच, अतिनीच से नीच सभी उपायों से फल की ही साधना करते हैं।" इसलिए समाज में आपस में प्रेम को बढ़ाने के लिए इस पाठ में पशु-पक्षियों के माध्यम से समाज में स्थित आत्म अभिमान को दिखाते हुए, प्रकृति माता के माध्यम से अन्त में निष्कर्ष स्थापित करते हैं कि काल और गुण का सभी के लिए महत्त्व होता है, सभी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। इसलिए हमें अपने कल्याण के लिए आपस में स्नेह और मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना चाहिए ।

               वनस्य दृश्यं समीपे एवैका नदी वहति । एकः सिंहः सुखेन विश्राम्यते तदैव एकः वानरः आगत्य तस्य पुच्छं धुनाति । क्रुद्धः सिंहः तं प्रहर्तुमिच्छति परं वानरस्तु कूर्दित्वा वृक्षमारूढः । तदैव अन्यस्मात् वृक्षात् अपरः वानरः सिंहस्य कर्णमाकृष्य पुनः वृक्षोपरि आरोहति । एवमेव वानराः वारं वारं सिंहं तुदन्ति । क्रुद्धः सिंहः इतस्ततः धावति, गर्जति परं किमपि कर्तुमसमर्थः एव तिष्ठति । वानराः हसन्ति वृक्षोपरि च विविधाः पक्षिणः अपि सिंहस्य एतादृशीं दशां दृष्ट्वा हर्षमिश्रितं कलरवं कुर्वन्ति ।

सरलार्थ - वन का दृश्य है, समीप में ही एक नदी बहती है। एक शेर सुखपूर्वक विश्राम कर रहा है, तभी एक बन्दर आकर उसकी पूँछ को घुमाता है। क्रोधित शेर उसे पकड़ना चाहता है परन्तु बन्दर तो कूदकर वृक्ष पर चढ़ जाता है। तभी वृक्ष से नीचे आकर कोई दूसरा बन्दर शेर का कान खींचकर फिर वृक्ष के ऊपर चढ़ जाता है। ऐसे ही बन्दर बार-बार शेर को परेशान करते हैं। क्रोधित शेर इधर-उधर दौड़ता है, गर्जता है परन्तु कुछ भी करने में असमर्थ ही रहता है । बन्दर हँसते हैं और वृक्ष के ऊपर अनेक पक्षी भी शेर की ऐसी दशा देखकर खुशी से भरा कलरव करते हैं।

निद्राभङ्गदुःखेन वनराजः सन्नपि तुच्छजीवैः आत्मनः एतादृश्या दुरवस्थया श्रान्तः सर्वजन्तून् दृष्ट्वा पृच्छति-
सिंह: -      ( क्रोधेन गर्जन) भोः ! अहं वनराजः किं भयं न जायते? किमर्थं मामेवं तुदन्ति सर्वे मिलित्वा ?
एकः वानरः - यतः त्वं वनराजः भवितुं तु सर्वथाऽयोग्यः । राजा तु रक्षकः भवति परं भवान् तु 
                    भक्षकः । अपि च स्वरक्षायामपि समर्थः नासि तर्हि कथमस्मान् रक्षिष्यसि ?
अन्यः वानरः - किं न श्रुता त्वया पञ्चतन्त्रोक्तिः -

सरलार्थ - नींद भंग होने से दुःखी वन का राजा होते हुए भी छोटे जीवों द्वारा अपनी ऐसी बुरी अवस्था से थका हुआ सभी जन्तुओं को देखकर पूछता है-

शेर - (क्रोधपूर्वक गर्जना करते हुए) अरे! मैं वन का राजा हूँ, क्या भय उत्पन्न नहीं उत्प होता ? किसलिए मुझे ही सभी मिलकर परेशान कर रहे हो ?

एक बन्दर - क्योंकि तुम वनराज हो किन्तु सर्वथा अयोग्य हो । राजा तो रक्षक होता है, परन्तु आप तो भक्षक हो। और अपनी रक्षा करने में भी समर्थ नहीं हो तो
हमारी रक्षा कैसे करोगे?
दूसरा बन्दर - क्या तुमने पंचतंत्र की कहावत नहीं सुनी है -

यो न रक्षति वित्रस्तान् पीड्यमानान्परैः सदा । 
जन्तून् पार्थिवरूपेण स कृतान्तो न संशयः ॥

अन्वय - यः परैः वित्रस्तान् पीड्यमानान् जन्तुन् पार्थिवरूपेण सदा न रक्षति, सः कृतान्तो ( अस्ति, अस्मिन् कोऽपि न संशय: ( अस्ति ) ।

सरलार्थ  - जो दूसरो के द्वारा दुःखी और पीड़ित जन्तुओं की राजा होते हुए भी हमेशा रक्षा नहीं करता है, वह यमराज है। इसमें कोई भी संदेह नहीं है।

काकः - आम् सत्यं कथितं त्वया वस्तुतः वनराजः भवितुं तु अहमेव योग्यः ।
पिकः -  (उपहसन्) कथं त्वं योग्यः वनराजः भवितुं यत्र तत्र का - का इति 
             कर्कशध्वनिना वातावरणमाकुलीकरोषि । न रूपम्, न ध्वनिरस्ति । 
               कृष्णवर्णम् मेध्यामेध्यभक्षकं त्वां कथं वनराजं मन्यामहे वयम् ?

सरलार्थ - 
कौआ - हाँ, सत्य कहा है - वास्तव में राजा बनने के योग्य तो मैं ही हूँ। 
कोयल - (हँसते हुए) तुम वनराज बनने के योग्य कैसे हो, यहाँ-वहाँ काँव-काँव की
              कर्कश (कटु) ध्वनि के द्वारा वातावरण को व्याकुल करते हो। न रूप है, न आवाज है। 
               काले रंग वाले, पवित्र और अपवित्र खाने वाले तुमको हम कैसे वनराज मान सकते हैं?

काकः - अरे! अरे ! किं जल्पसि ? यदि अहं कृष्णवर्णः तर्हि त्वं किं गौराङ्गः ? अपि च विस्मर्यते 
             किं यत् मम सत्यप्रियता तु जनानां कृतें उदाहरणस्वरूपा - 'अनृतं वदसि चेत् काकः 
             दशेत्'- इति प्रकारेण । अस्माकं परिश्रमः ऐक्यं च विश्वप्रथितम् । अपि च काकचेष्टः 
              विद्यार्थी एव आदर्शच्छात्रः मन्यते ।
पिकः -    अलम् अलम् अतिविकत्थनेन । किं विस्मर्यते यत्-

सरलार्थ - 
कौआ - अरे ! अरे ! क्यो जलती हो? यदि मैं काले रंग का हूँ तो क्या तुम गौरी हो?
            क्या तुम भूल गई कि मेरी सत्यप्रियता लोगों के लिए उदाहरण स्वरूप है - 'झूठ 
            बोले तो कौआ काटे इस प्रकार से हमारा परिश्रम और एकता विश्व प्रसिद्ध है और 
            काक चेष्टा वाला विद्यार्थी ही आदर्श छात्र माना जाता है। 
कोयल - बस करो, बस करो, डींगें मारना क्या तुम भूल गए कि

 काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः । 
वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः ॥

अन्वय  -  काकः कृष्णः (भवति) पिकः कृष्णः (च भवति) (तु) पिककाकयो: को भेदः (अस्ति ) । वसन्तसमये प्राप्ते काकः काकः (भवति), पिकः पिकः (च भवति) ।

सरलार्थ - कौआ काला होता है और कोयल भी काली होती है, तो कोयल और कौए में क्या अन्तर है। 
                वसन्त ऋतु आने पर कौआ कौआ होता है और कोयल कोयल होती है।

काकः - रे परभृत्! अहं यदि तव संततिं न पालयामि तर्हि कुत्र स्युः पिकाः ? अतः अहम् एव 
              करुणापरः पक्षिसम्राट् काकः ।
गजः -   समीपतः एवागच्छन् अरे ! अरे ! सर्वं सम्भाषणं शृण्वन्नेवाहम् अत्रागच्छम् । 
            अहं विशालकायः, बलशाली, पराक्रमी च । सिंहः वा स्यात् अथवा अन्यः कोऽपि 
            वन्यपशून् तु तुदन्तं जन्तुमहं स्वशुण्डेन पोथयित्वा मारयिष्यामि । 
             किमन्यः कोऽप्यस्ति एतादृशः पराक्रमी । अतः अहमेव योग्यः वनराजपदाय।

सरलार्थ - 
कौआ - अरे परवश कोयल ! मैं यदि तुम्हारी सन्तानों नहीं पालता हूँ तो कोयल कहाँ है ? 
              इसलिए मैं ही करूणा करने वाला पक्षी सम्राट कौआ हूँ।
हाथी - पास ही आकर अरे! अरे ! सभी सम्भाषण को सुनकर ही मैं यहाँ आया हूँ। मैं  विशाल शरीर 
            वाला,  बलशाली और पराक्रमी हूँ। शेर हो अथवा अन्य कोई भी वन्य पशुओं को तो परेशान करते                हुए मैं अपनी सूँढ़ से पटक कर मार दूँगा । क्या दूसरा   कोई भी ऐसा पराक्रमी है? इसलिए मैं ही                  वनराज पद के योग्य हूँ ।
वानरः - अरे! अरे ! एवं वा (शीघ्रमेव गजस्यापि पुच्छं विधूय वृक्षोपरि आरोहति । )
( गजः तं वृक्षमेव स्वशुण्डेन आलोडयितुमिच्छति परं वानरस्तु कूर्दित्वा अन्यं वृक्षमारोहति । एवं गजं वृक्षात् वृक्षं प्रति धावन्तं दृष्ट्वा सिंहः अपि हसति वदति च । )
सिंहः  - भोः गज! मामप्येवमेवातुदन् एते वानराः ।
वानरः - एतस्मादेव तु कथयामि यदहमेव योग्यः वनराजपदाय येन विशालकायं पराक्रमिणं, भयंकरं चापि सिहं गजं वा पराजेतुं समर्था अस्माकं जातिः । अतः वन्यजन्तूनां रक्षायै वयमेव क्षमाः ।
                 ( एतत्सर्वं श्रुत्वा नदीमध्यस्थित: एक: बकः)
बकः - अरे ! अरे ! मां विहाय कथमन्यः कोऽपि राजा भवितुमर्हति । अहं तु शीतले जले बहुकालपर्यन्तम् अविचलः ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञ इव स्थित्वा सर्वेषां रक्षायाः उपायान् चिन्तयिष्यामि, योजनां निर्मीय च स्वसभायां विविधपदमलंकुर्वाणैः जन्तुभिश्च मिलित्वा रक्षोपायान् क्रियान्वितान् कारयिष्यामि, अतः अहमेव वनराजपदप्राप्तये योग्यः।
मयूरः - ( वृक्षोपरित :- साट्टहासपूर्वकम् ) विरम विरम आत्मश्लाघायाः किं न जानासि यत्-

सरलार्थ -
बन्दर - अरे ! अरे ! ऐसा (शीघ्र ही हाथी की पूँछ को पकड़कर वृक्ष के ऊपर चढ़ जाता है ।) (हाथी उस पेड़ को ही अपनी सूँढ़ से गिराना चाहता है परन्तु बन्दर कूदकर दूसरे पेड़ पर चढ़ जाता है। इस प्रकार हाथी को वृक्ष से वृक्ष की ओर दौड़ता देखकर शेर हँसता है और बोलता है ।)

शेर - हे हाथी ! ये बन्दर मुझे भी ऐसे ही परेशान करते हैं।

बन्दर - इसी कारण से तो कह रहा हूँ कि मैं ही वनराज पद के याग्य हूँ, जिसके द्वारा विशालकाय, पराक्रमी और भयंकर शेर अथवा हाथी को पराजित करने में हमारी जाति समर्थ है। अतः वन्यजीवों की रक्षा करने में हम ही समर्थ है।
( यह सब सुनकर नदी के बीच में स्थित एक बगुला बोला )

बगुला - अरे ! अरे ! मुझे छोड़कर कैसे कोई दूसरा राजा बनने के योग्य है। मैं तो ठंडे जल में बहुत समय तक बिना विचलित हुए ध्यामग्न स्थिर बुद्धि वाले के समान स्थित रहकर सभी की रक्षा के उपायों की चिन्ता करूँगा और योजना बनाकर अपनी सभा में अनेक पदों से अलंकृत जन्तुओं के साथ मिलकर रक्षा के उपायों को क्रियान्वित करूँगा । इसलिए मैं ही वनराज पद प्राप्त करने के योग्य हूँ ।

मोर - ( वृक्ष के ऊपर जोर से हँसते हुए) रूको, रूको अपनी प्रशंसा बस करो, क्या नहीं
जानते हो कि-
यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङनेता ततः प्रजा । 
अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव ॥

अन्वय - यदि नरपतिः सम्यक् नेता न स्यात् ततः प्रजाः इह अकर्णधारा नौ इव जलधौ विप्लवेत् ।
सरलार्थ -
यदि राजा अच्छा नेता नहीं हो तो प्रजा बिना नाविक की नौका के समान समुद्र में डूब जाती है।

को न जानाति तव ध्यानावस्थाम् । 'स्थितप्रज्ञ' इति व्याजेन वराकान् मीनान् छलेन अधि गृह्य क्रूरतया भक्षयसि । धिक् त्वाम् । तव कारणात् तु सर्वं पक्षिकुलमेवावमानितं जातम् ।

वानरः - ( सगर्वम्) अतएव कथयामि यत् अहमेव योग्यः वनराजपदाय। शीघ्रमेव मम राज्याभिषेकाय तत्पराः भवन्तु सर्वे वन्यजीवाः ।
मयूरः - अरे वानर ! तूष्णीं भव । कथं त्वं योग्यः वनराजपदाय? पश्यतु पश्यतु मम शिरसि राजमुकुटमिव शिखां स्थापयता विधात्रा एवाहं पक्षिराजः कृतः, अतः वने निवसन्तं मां वनराजरूपेणापि द्रष्टुं सज्जाः भवन्तु अधुना । यतः कथं कोऽप्यन्यः विधातुः निर्णयम् अन्यथाकर्तुं क्षमः ।
काकः - (सव्यङ्ग्यम्) अरे अहिभुक् । नृत्यातिरिक्तं का तव विशेषता यत् त्वां वनराजपदाय योग्यं मन्यामहे वयम् ।

सरलार्थ - कौन नहीं जानता है तुम्हारी ध्यान अवस्था को । 'स्थित बुद्धि वाले ऐसे बहाने से बेचारी मछलियों को छलपूर्वक पकड़कर क्ररता पूर्वक खा जाते हो। तुम्हें धिक्कार है। तुम्हारे कारण तो सारा पक्षिकुल अपमानित ही होता है।

बन्दर - (गर्व के साथ ) इसलिए ही कहता हूँ कि मैं ही वनराज पद के योग्य हूँ। शीघ्र ही मेरे राज्याभिषेक के लिए आप सभी वन्यजीव तैयार हो जाओ ।

मोर - अरे बन्दर ! चुप हो जाओ। तुम वनराज पद के योग्य कैसे हो? देखो, देखो मम सिर पर राजमुकुट के समान कलंगी को स्थापित करके विधाता के द्वारा ही मैं पक्षिराज बनाया गया, इसलिए अब वन में रहते हुए मुझे वनराज के रूप में देखने के लिए तैयार हो। क्योंकि कैसे कोई दूसरा विधाता के निर्णय को अन्यथा करने में (बदलने में समर्थ है।
कौआ - ( व्यंग्यपूर्वक) अरे साँप को खाने वाले! नृत्य के अतिरिक्त तुम्हारी क्या विशेषता है कि हम सब तुम्हें वनराज पद के योग्य मानें।

मयूरः - यतः मम नृत्यं तु प्रकृतेः आराधना । पश्य ! पश्य ! मम पिच्छानामपूर्व सौंदर्यम् (पिच्छानुद्घाट्य नृत्यमुद्रायां स्थितः सन् ) न कोऽपि त्रैलोक्ये मत्सदृशः सुन्दरः । वन्यजन्तूनामुपरि आक्रमणं कर्तारं तु अहं स्वसौन्दर्येण नृत्येन च आकर्षितं कृत्वा वनात् बहिष्करिष्यामि । अतः अहमेव योग्यः वनराजपदाय।
( एतस्मिन्नेव काले व्याघ्रचित्रको अपि नदीजलं पातुमागतौ एतं विवादं शृणुत: वदतः च) 
व्याघ्रचित्रकौ - अरे किं वनराजपदाय सुपात्रं चीयते ?
                      एतदर्थं तु आवामेव योग्यौ । यस्य कस्यापि चयनं कुर्वन्तु सर्वसम्मत्या ।
सिंहः -  तूष्णीं भव भोः। युवामपि मत्सदृशौ भक्षकौ न तु रक्षकौ । एते वन्यजीवाः भक्षकं रक्षकपदयोग्यं न मन्यन्ते अतएव विचारविमर्शः प्रचलति ।
बकः - सर्वथा सम्यगुक्तम् सिंहमहोदयेन । वस्तुतः एव सिंहेन बहुकालपर्यन्तं शासनं कृतम् परमधुना तु कोऽपि पक्षी एव राजेति निश्चेतव्यम् अत्र तु संशीतिलेशस्यापि अवकाशः एव नास्ति ।
सर्वे पक्षिणः - (उच्चैः) - आम् आम्- कश्चित् खगः एव वनराजः भविष्यति इति ।

सरलार्थ - 
मोर - क्योंकि मेरा नृत्य तो प्रकृति की आराधना है। देखो, देखो! मेरे पंखों के अपूर्व सौन्दर्य को (पंखों को फैलाकर नृत्य की अवस्था में) त्रिलोक में मेरे समान सुन्दर कोई भी नहीं है। वन्य जन्तुओं के ऊपर आक्रमण करने वाले को तो मैं अपनी सुन्दरता और नृत्य से आकर्षित करके वन से बाहर कर दूँगा । इसलिए मैं ही वनराज पद के याग्य हूँ।
(इसी समय बाघ और चीता भी नदी का जल पीने के लिए आए और इस विवाद को सुनते हैं और बोलते हैं ।)

बाघ और चीता - अरे क्या वनराज पद के लिए सुपात्र चुना जा रहा है?
इसके लिए तो हम दोनों ही योग्य हैं। सर्वसम्मति से जिस किसी
का भी चयन करें।

शेर - अरे चुप हो जाओ। तुम दोनों भी मेरे समान ही भक्षक हो रक्षक नहीं। ये वन्यजीवों के भक्षक को रक्षक के योग्य नहीं मानते हैं इसलिए ही विचार विमर्श चल रहा है। 

बगुला - शेर महोदय ने सर्वथा उचित कहा गया है। वास्तव में बहुत समय तक शेर के द्वारा शासन किया गया है परन्तु अब तो कोई पक्षी ही वनराज होगा यह
निश्चित है, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है।

सभी पक्षीगण - (जोर से) हाँ, हाँ - कोई पक्षी ही वनराज होगा।

( परं कश्चिदपि खगः आत्मानं विना नान्यं कमपि अस्मै पदाय योग्यं चिन्तयन्ति तर्हि कथं निर्णयः भवेत् तदा तैः सर्वै: गहननिद्रायां निश्चिन्तं स्वपन्तम् उलूकं वीक्ष्य विचारितम् यदेषः आत्मश्लाघाहीनः पदनिर्लिप्तः उलूको एवास्माकं राजा भविष्यति । परस्परमादिशन्ति च तदानीयन्तां नृपाभिषेकसम्बन्धिन: सम्भारा : इति । )
                                 सर्वे पक्षिणः सज्जायै गन्तुमिच्छन्ति तर्हि अनायास एव-
काकः - (अट्टहासपूर्णेन - स्वेरण) - सर्वथा अयुक्तमेतत् यन्मयूर - हंस- कोकिल-
चक्रवाक - शुक-सारसादिषु पक्षिप्रधानेषु विद्यमानेषु दिवान्धस्यास्य करालवक्त्रस्याभिषेकार्थं सर्वे सज्जाः । पूर्णं दिनं यावत् निद्रायमाणः एषः कथमस्मान् रक्षिष्यति । वस्तुतस्तु-

सरलार्थ - ( परन्तु कोई भी पक्षी अपने बिना अन्य किसी को भी इस पद के योग्य पद के नहीं मानता है तो कैसे निर्णय होगा तब उन सभी ने गहरी नींद में सोए हुए उल्लू को देखकर विचार किया कि यह स्वयं की प्रशंसा से रहित है, न ही पद का लोभ है इसलिए उल्लू ही हमारा राजा होगा । आपस में सभी अभिषेक संबन्धी समान को लाने का आदेश देते हैं ।)
सभी पक्षी तैयार होने के लिए जाना चाहते हैं, तब अचानक ही-

कौआ - (हँसते हुए स्वर से) यह तो सर्वथा अनुचित है कि मोर, हंस, कोयल, चक्रवाक,
तोता, सारस आदि पक्षी प्रधान के उपस्थित होते हुए भी इस दिन के अंधे, भयानक मुख वाले उल्लू के अभिषेक के लिए सब तैयार हो। पूरे दिन तक सोता रहता है यह कैसे हमारी रक्षा करेगा । वास्तव में-

स्वभावरौद्रमत्युग्रं क्रूरमप्रियवादिनम्।
उलूकं नृपतिं कृत्वा का नु सिद्धिर्भविष्यति ॥

अन्वय - स्वभावरौद्रम् अत्युग्रं क्रूरम् अप्रियवादीनम् (च) उलूकं नृपति कृत्वा नु का सिद्धिः भविष्यति ।

सरलार्थ - स्वभाव से रौद्र, अत्यन्त उग्र, क्रूर और अप्रिय बोलने वाले उल्लू को राजा बनाकर निश्चय ही हमारी क्या सिद्धि होगी।
                                                 ( तत: प्रविशति प्रकृतिमाता)
प्रकृतिमाता - ( सस्नेहम् ) भो भोः प्राणिनः । यूयम् सर्वे एव मे सन्ततिः । कथं मिथः कलहं कुर्वन्ति । वस्तुतः सर्वे वन्यजीविनः अन्योन्याश्रिताः । सदैव स्मरत-

सरलार्थ - ( तब प्रकृति माता प्रवेश करती है।)
प्रकृतिमाता – (स्नेहर्पूक) हे प्राणियों ! तुम सभी मेरी ही सन्तान हो । क्यों बेकार की लड़ाई करते हो । वास्तव में सभी वन्यजीव एक-दूसरे पर आश्रित हैं। सदा याद रखो -

ददाति प्रतिगृह्णाति, गुह्यमाख्याति पृच्छति। 
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्-विधं प्रीतिलक्षणम् ॥

अन्वय - ददाति, प्रतिगृह्णाति, गुह्यमाख्याति, पृच्छति, भुङ्क्ते, भोजयते च एव षड्-विधं प्रीतिलक्षणम् (सन्ति) ।

सरलार्थ - देता है, लेता है, रहस्य बताता है, पूछता है, भोग करता है और भोजन करता है, ये ही छः प्रेम के लक्षण हैं ।

( सर्वे प्राणिनः समवेतस्वरेण ) मातः ! कथयति तु भवती सर्वथा सम्यक् परं वयं भवतीं न जानीमः । भवत्याः परिचयः कः ?

प्रकृतिमाता  - अहं प्रकृतिः युष्माकं सर्वेषां जननी ? यूयं सर्वे एव मे प्रियाः । सर्वेषामेव मत्कृते महत्त्वं विद्यते यथासमयम् न तावत् कलहेन समयं वृथा यापयन्तु अपितु मिलित्वा एव मोदध्वं जीवनं च रसमयं कुरुध्वम् । तद्यथा कथितम्-

सरलार्थ - (सभी प्राणी एक स्वर में) हे माता! आप सर्वथा उचित कहती हो परन्तु हम आपको नहीं जानते हैं। आपका परिचय क्या है?

प्रकृतिमाता – मैं प्रकृति तुम सबकी जननी हूँ। तुम सब ही मुझे प्रिय हो । सभी का मेरे लिए महत्व है, जो समय है उसे कलह में व्यर्थ न करें अपितु मिलकर
ही जीवन को मुदित और रसमय करें। इसलिए कहा गया है-

प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् ।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥
         अपि च-
अन्वय -  प्रजासुखे राज्ञः सुखं (अस्ति), प्रजानां हिते च (राज्ञः) हितं (अस्ति ) । राज्ञः आत्मप्रियं न हितं (अस्ति), तु प्रजानां प्रियं (राज्ञः) हितम् (अस्ति ) ।

सरलार्थ- प्रजा के सुख में राजा का सुख है और प्रजा के हित में राजा का हित है। राजा का आत्मप्रिय में हित नहीं है, अपितु प्रजा के प्रिय में राजा का हित है। और भी-

अगाधजलसञ्चारी न गर्व याति रोहितः । 
अङ्गुष्ठोदकमात्रेण शफरी फुर्फुरायते ॥

अन्वय - अगाधजलसंचारी रोहितः गर्वं न याति अङ्गुष्ठोदकमात्रेण शफरी फुर्फुरायते ।

सरलार्थ - अथाह जलधारा में संचरण करने वाली रोहू नामक बड़ी मछली घमण्ड नहीं करती है, अँगूठे के बराबर ( बहुत थोड़े ) जल में छोटी मछली फुदकती रहती है।
अतः भवन्तः सर्वेऽपि शफरीवत् एकैकस्य गुणस्य चर्चां विहाय मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय वनरक्षायै च प्रयतन्ताम् ।
सर्वे प्रकृतिमातरं प्रणमन्ति मिलित्वा दृढसंकल्पपूर्वकं च गायन्ति-

सरलार्थ - इसलिए आप सभी शफरी मछली के समान एक-एक के गुण की चर्चा छोड़कर, मिलकर प्रकृति के सौन्दर्य के लिए वन की रक्षा के लिए प्रयत्न करें। सभी प्रकृतिमाता को प्रणाम करते हैं और मिलकर दृढ़संकल्प पूर्वक गाते हैं-

प्राणिनां जायते हानिः परस्परविवादतः । 
अन्योन्यसहयोगेन लाभस्तेषां प्रजायते ॥

अन्वय - परस्परविवादतः प्राणिनां हानिः जायते, अन्योन्यसहयोगेन तेषां लाभः प्रजायते ।

सरलार्थ - आपस में विवाद से प्राणियों की हाँनि होती है, एक-दूसरे के सहयोग से उनका लाभ होता है।

अभ्यासः

1. एकपदेन उत्तरं लिखत-
(क) वनराजः कै: दुरवस्थां प्राप्त: ?                                                        उत्तर  -:      तुच्छ जीवै:
(ख) कः वातावरणं कर्कशध्वनिना आकुलीकरोति ?                              उत्तर  -:      काक:
(ग) काकचेष्टः विद्यार्थी कीदृशः छात्रः मन्यते ?                                        उत्तर  -:     आदर्श:
(घ) कः आत्मानं बलशाली, विशालकायः, पराक्रमी च कथयति ।            उत्तर  -:     गजः 
(ङ) बकः कीदृशान् मीनान् क्रूरतया भक्षयति ?                                       उत्तर  -:    वराकान्
2. अधोलिखितप्रश्नानामुत्तराणि पूर्णवाक्येन लिखत-
(क) नि:संशयं कः कृतान्तः मन्यते ?
उत्तर. यः परैः वित्रस्तान् पीड्यमानान् जन्तुन् पार्थिवरूपेण सदा न रक्षति, सः कृतान्तो अस्ति, अस्मिन् कोऽपि न संशयः मन्यते ।
(ख) बकः वन्यजन्तूनां रक्षोपायान् कथं चिन्तयितुं कथयति ?
उत्तर. बकः शीतले जले बहुकालपर्यन्तम् अविचलः ध्यानमग्नः स्थितप्रज्ञः इव स्थित्वा सर्वेषां रक्षायाः उपायान् चिन्तयितुं कथयति ।
(ग) अन्ते प्रकृतिमाता प्रविश्य सर्वप्रथमं किं वदति?
उत्तर. अन्ते प्रकृतिमाता प्रविश्य सर्वप्रथमं वदति यत् भोः मोः प्राणिनः ! यूयं सर्वे एव मे सन्ततिः । कथं मिथः कलहं कुर्वन्ति । वस्तुतः सर्वे वन्यजीविनः अन्योन्याश्रिताः सन्ति ।
(घ) यदि राजा सम्यक् न भवति तदा प्रजा कथं विप्लवेत् ?
उत्तर. यदि राजा सम्यक् न भवति तदा प्रजा अकर्णधारा जलधौ नौरिव विप्लवेत् ।
(ङ) मयूरः कथं नृत्यमुद्रायां स्थितः भवति ?
उत्तर. मयूरः पिच्छानुद्घाट्य नृत्यमुद्रायां स्थितः भवति ।
(च) अन्ते सर्वे मिलित्वा कस्य राज्याभिषेकाय तत्पराः भवति ? 
उत्तर. अन्ते सर्वे मिलित्वा उलूकस्य राज्याभिषेकाय तत्पराः भवति ।
(छ) अस्मिन्नाटके कति पात्राणि सन्ति?
उत्तर. अस्मिन्नाटके एकादश पात्राणि सन्ति ।
3. रेखांकितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत- 
(क) सिंहः वानराभ्यां स्वरक्षायाम् असमर्थः एवासीत् । 
उत्तर. सिंहः वानराम्यां कस्याम् असमर्थः एवासीत् ?
(ख) गजः वन्यपशून् तुदन्तं शुण्डेन पोथयित्वा मारयति । 
उत्तर. गजः वन्यपशून् तुदन्तं केन पोथयित्वा मारयति ?
(ग) वानरः आत्मानं वनराजपदाय योग्यः मन्यते ।
उत्तर. वानरः आत्मानं कस्मै योग्यः मन्यते?
(घ) मयूरस्य नृत्यं प्रकृतेः आराधना ।
उत्तर. मयूरस्य नृत्यं कस्याः आराधना?
(ङ) सर्वे प्रकृतिमातरं प्रणमन्ति । 
उत्तर. सर्वे कां प्रणमन्ति?
4. शुद्धकथनानां समक्षम् आम् अशुद्धकथनानां च समक्षं न इति लिखत-
(क) सिंह: आत्मानं तुदन्तं वानरं मारयति ।                                  न
(ख) का - का इति बकस्य ध्वनिः भवति ।                                   
(ग) काकपिकयोः वर्णः कृष्णः भवति ।                                      आम्
(घ) गजः लघुकायः, निर्बलः च भवति ।                                         न
(ङ) मयूरः बकस्य कारणात् पक्षिकुलम् अवमानितं मन्यते ।       आम्
(च) अन्योन्यसहयोगेन प्राणिनाम् लाभः जायते।                          आम्
5. मञ्जूषातः समुचितं पदं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत-
स्थितप्रज्ञः, यथासमयम्, मेध्यामेध्यभक्षकः, अहिभुक्, आत्मश्लाघाहीनः, पिकः ।
(क) काक "मेध्यामेध्यमक्षकः" भवति।
(ख) "पिक:" परभृत् अपि कथ्यते ।
(ग) बकः अविचल "स्थितप्रज्ञः" इव तिष्ठति ।
(घ) मयूरः "अहिमुक्" इति नाम्नाऽपि ज्ञायते ।
(ङ) उलूक : "आत्मश्लाघाहीनः" पदनिर्लिप्तः चासीत् । 
(च) सर्वेषामेव महत्त्वं विद्यते "यथासमयम्"
6. वाच्यपरिवर्तनं कृत्वा लिखत-
उदाहरणम् - क्रुद्धः सिंहः इतस्ततः धावति गर्जति च । 
                   क्रुद्धेन सिंहेन इतस्ततः धाव्यते गर्ज्यते च ।
(क) त्वया सत्यं कथितम् ।
उत्तर. त्वं सत्यं वदसि ।
(ख) सिंहः सर्वजन्तून् पृच्छति ।
उत्तर. सिंहेन सर्वजन्तवः पृच्छयते ।
(ग) काकः पिकस्य संततिं पालयति । 
उत्तर. काकेन पिकस्य संततिः पालयते ।
(घ) मयूर : विधात्रा एव पक्षिराजः वनराजः वा कृतः । 
उत्तर. मयूरं विधाता एव पक्षिराजं वनराजं वा अकरोत् ।
(ङ) सर्वैः खगैः कोऽपि खगः एव वनराजः कर्तुमिष्यते स्म । 
उत्तर. सर्वे खगाः कम् अपि खगम् एव वनराजं कर्तुम् ऐच्छन् ।
(च) सर्वे मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय प्रयत्नं कुर्वन्तु । 
उत्तर. सर्वैः मिलित्वा प्रकृतिसौन्दर्याय प्रयत्नं क्रियते ।
7. समासविग्रहं समस्तपदं वा लिखत-
(क) तुच्छजीवैः  तुच्छैः जीवैः |
(ख) वृक्षोपरि     वृक्षस्य उपरि |
(ग) पक्षिणां सम्राट्   पक्षिसम्राट् |
(घ) स्थिता प्रज्ञा यस्य सः  स्थितप्रज्ञः |
(ङ) अपूर्वम्             न पूर्वम्  | 
(च) व्याघ्रचित्रका व्याघ्रः च चित्रकः च |

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